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Anil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11 ।।श्री हरिः।। 12 - स्नेह जलता है 'अच्छा तुम आ गये?' माता के इन शब्दों को आप चाहें तो आशीर्वाद कह सकते हैं; किंतु कोई उत्साह नहीं था इनके उच्चारण में। उसने अपनी पीठ की छोटी गठरी एक ओर रखकर माता के चरण छुये और तब थका हुआ एक ओर भूमि पर ही बैठ गया। 'माँ मुझे देखते ही दौड़ पड़ेगी। दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से चिपका लेगी। वह रोयेगी और इतने दिनों तक न आने के लिये उलाहने देगी।' वर्षों से पता नहीं क्या-क्या आशाएँ उमंगें, कल्पनाएँ मन में पाले हुए था वह। 'मैं मा
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11 ।।श्री हरिः।। 5 - भक्ति-मूल-विश्वास 'पानी!' कुल दस गज दूर था पानी उनके यहाँ से; किंतु दुरी तो शरीर की शक्ति, पहुँचने के साधनपर निर्भर है। दस कोस भी दस पद जैसे होते हैं स्वस्थ सबल व्यक्ति को और आज के सुगम वायुयान के लिये तो दस योजन भी दस पद ही हैं; किंतु रुग्ण, असमर्थ के लिए दस पद भी दस योजन बन जाते हैं - 'यह तो सबका प्रतिदिन का अनुभव है। 'पानी!' तीव्र ज्वराक्रान्त वह तपस्वी - क्या हुआ जो उससे दस गज दूर ही पर्वतीय जल-स्त्रोत है। वह तो आज अपने आसन से उठन
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 10 ।।श्री हरिः।। 4 - अकाम 'असंकल्पाज्जयेत् कामम्' काम जानामि ते मूलं संकल्पात् सम्भविष्यसि।
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 10 ।।श्री हरिः।। 1 - मा फलेषु कदाचन 'आप यहाँ!' नगर का प्रतिष्ठित डाक्टर - वह डाक्टर जिसे स्नान-भोजन को ठिकाने से समय नहीं मिलता, इस प्रकार अपनी जमी-जमाई चिकीत्सा की दुकान छोड़ कर सुदूर देहात में एक नन्हा-सा तंबू डालकर आ टिकेगा, इसकी कोई कैसे सम्भावना कर सकता है। 'मैं चिकित्सक हूँ - अत: इस समय मुझे यहाँ होना ही चाहिये था।' डाक्टर अवधेशजी चटपट उठ खड़े हुए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर आगन्तुक को नमस्कार किया।
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 9 || श्री हरि: || 13 - ज्ञानी आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।। कुर्वन्त्यहैतुकीं भविंत इत्थम्भूतगुणो हरि:।।
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|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 9 ||श्री हरिः|| 6 - भगवत्प्राप्ति 'मनुष्य जीवन मिला ही भगवान को पाने के लिए है। संसार भोग तो दूसरी योनियों में भी मिल सकते हैं। मनुष्य में भोगों को भोगने की उतनी शक्ति नहीं, जितनी दूसरे प्राणियों में है।' वक्ता की वाणी में शक्ति थी। उनकी बातें शास्त्रसंगत थी, तर्कसम्मत थी और सबसे बड़ी बात यह थी कि उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो उनके प्रत्येक शब्द को सजीव बनाये दे रहा था। 'भगवान को पाना है - इसी जीवन में पाना है।भगवत्प्राप्ति हो गई तो जीवन सफल हुआ और न हुई तो मह
read moreShivam Mishra
ज्वर का ज्वार एे ज्वर तू मुझसे ऐसा क्या पाता है जब भी आता है तो शरीर गर्म और अरमान ठंन्डे कर जाता है तेरा प्यार भी ऐसा है रुहानी की वैसे तो दिखता नहीं सालों तक पर जब आता है तो तापमापी की सारी लकीरें पार कर है जाता तेरी वफादारी से मेरा बड़ा प्यारा नाता है पर ये ऐसा अनूठा प्यार है ज़िसमे ये इंतजार रहता है की प्रेमी कब जाता है पर चाहे आ जाये अब हमको ज्वर का ज्वार हम तो बुखार से भी कर लेते हैँ प्यार
Anil Siwach
|| श्री हरि: || 13 - ज्ञानी आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।। कुर्वन्त्यहैतुकीं भविंत इत्थम्भूतगुणो हरि:।। 'तुम काश्मीर से स्वास्थ्य सुधार आये?' श्रीस्वामीजी ने समीप बैठे एक हृष्ट-पुष्ट संम्भ्रान्त नवयुवक से पूछा। 'जी, अभी परसों ही घर लौटा हूँ। लगभग छ: महीने लग गये वहाँ। बड़ा रमणीक प्रदेश है।' युवक संभवत: बहुत कुछ कहना चाहता था।
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||श्री हरिः|| 6 - भगवत्प्राप्ति 'मनुष्य जीवन मिला ही भगवान को पाने के लिए है। संसार भोग तो दूसरी योनियों में भी मिल सकते हैं। मनुष्य में भोगों को भोगने की उतनी शक्ति नहीं, जितनी दूसरे प्राणियों में है।' वक्ता की वाणी में शक्ति थी। उनकी बातें शास्त्रसंगत थी, तर्कसम्मत थी और सबसे बड़ी बात यह थी कि उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो उनके प्रत्येक शब्द को सजीव बनाये दे रहा था। 'भगवान को पाना है - इसी जीवन में पाना है।भगवत्प्राप्ति हो गई तो जीवन सफल हुआ और न हुई तो महान हानि हुई।' प्रवचन समाप्त हुआ। लोगों
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