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Sandeep Chobara
🍁हम आगे बढ़ते जाएँगे🍁 हे ! #ज़ालिम सरकार.... तुम हमें #रोकने में अपनी पूरी जान झोंक देना हम फिर भी आगे #बढ़ते जाएँगे #मकसद अपना पूरा करेंगे.....! तुम लगा लेना सड़कों पर कितने ही #बैरिकेडस, #पत्थर #ट्रक और चाहे #कंटीले तार तब भी तुम #पस्त नहीं कर पाओगे हम आगे बढ़ते जाएँगे...... तुम छोड़ो #आँसू गैस के #गोले चाहे बरसाओ पानी #वाटरकैनन से #सर्दी भरे इस मौसम में चाहे करवाओ #लाठीचार्ज पुलिस से हम #हार नहीं फिर भी मानेंगे हम आगे बढ़ते जाएँगे.......! इस #जोर-ज़ुल्म की टक्कर में मिल-जुल कर हमें अब #लड़ना है #पीछे हमें नहीं अब #हटना है चाहे जो भी अब हो जाए हम आगे बढ़ते जाएँगे......! ©Sandeep Chobara #worldpostday
Anil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 9 || श्री हरि: || 3 - भरोसा भगवान का 'वह देखो!' याक की पीठ पर से ही जो कुछ दिखाई पड़ा उसने उत्फुल्ल कर दिया। अभी दिनके दो बजे थे। हम सब चले थे तीर्थपुरी से प्रात: सूर्योदय होते ही, किंतु गुरच्याँग में विश्राम-भोजन हो गया था और तिब्बतीय क्षेत्र में वैसे भी भूख कम ही लगती है। परन्तु जहाँ यात्री रात-दिन थका ही रहता हो, जहाँ वायु में प्राणवायु (आक्सिजन) की कमी के कारण दस गज चलने में ही दम फूलने लगता हो और अपना बिस्तर समेटने में पूरा पसीना आ जाता हो, वहाँ याक क
read moreBhaskar Anand
ऊन के लिपटे गोले और तेज हाथों से चलती वो दो कांटे.. और भागता मैं, ऊन के गोले ले कर और वो मगन,अपने धुन में बुनती स्वेटर.. मानो जैसे गढ़ रही हो हमारे रक्षा की लिबास बरबस ही याद आ जाती है जब दस्तक देती ठण्ड ,बदन को सिहरा देती है ,आज तब गुम हो जाता हूँ कहीं मैं उनके ममत्व और वात्सल्य में खोने लग जाता हूँ कहीं अपने होने के पर्याय में और पारदर्शी प्रेम के असीम ब्रह्मांड में तब पलट कर देखता हूँ मैं,अतीत की चारदीवारी को और पढ़ने लग जाता हूँ, उन अनगिनत शब्दावली को, जो रेखांकित करती मेरे अस्तितव के ज्यामिति को... और वो सदैव विद्यमान दिखती मेरे परिधि के दूसरे छोड़ पर, विस्तारित करती मेरी जीवन के व्यास को निरंतर.. भास्कर #mylove #mymom #myvalentine #loveforever #theonewhodefinelove #motherlove #beyondtime
Bhaskar Anand
ऊन के लिपटे गोले और तेज हाथों से चलती वो दो कांटे.. और भागता मैं, ऊन के गोले ले कर और वो मगन,अपने धुन में बुनती स्वेटर.. मानो जैसे गढ़ रही हो
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|| श्री हरि: || 3 - भरोसा भगवान का 'वह देखो!' याक की पीठ पर से ही जो कुछ दिखाई पड़ा उसने उत्फुल्ल कर दिया। अभी दिनके दो बजे थे। हम सब चले थे तीर्थपुरी से प्रात: सूर्योदय होते ही, किंतु गुरच्याँग में विश्राम-भोजन हो गया था और तिब्बतीय क्षेत्र में वैसे भी भूख कम ही लगती है। परन्तु जहाँ यात्री रात-दिन थका ही रहता हो, जहाँ वायु में प्राणवायु (आक्सिजन) की कमी के कारण दस गज चलने में ही दम फूलने लगता हो और अपना बिस्तर समेटने में पूरा पसीना आ जाता हो, वहाँ याक की पीठपर ही सही, सोलह मील की यात्रा करके क
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