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White " गरीबों के फल बाढ़ बरसात फ़सल ।।।।।।।

White " 
   गरीबों के फल 
बाढ़ बरसात फ़सल 
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
चित्र में तेरे चेहरे की चहकती चंचलता देखकर इस वीरान सी जंगल में नाव खेकर
मुझे मरुस्थल की जहाज़ याद आती हैं। 
मगरूर बेशर्म ज़माना में भी मुझे झूलती नौका ठिठूरती  कापती नंगी  वृद्ध बदन में भीं 
एक बेमिसाल ऊर्जा भरी तेरी यौवन्ता भाती हैं।।

किसी को लगता है समझ नादानी हैं ये नई जवानी है नई रवानी हैं उमंग सयानी हैं ।
पर कोई क्या जानें ये बुढ़ापे की  भावुक कहानी हैं जोश पुरानी हैं ,पेशा खानदानी हैं ।।
सजा  मठ हाथों में है लंबी लठ माथे पर मुसीबत का हठ और डगमगाती रथ रवानी हैं 
अनपढ़ अंगूठा छाप पर शून्य भाव  ईमानदारी हैं, ह्रदय में न कोई कल छल बेईमानी है ।।

चारों तरफ बाढ़ बरसात का भरा पानी ही पानी हैं हे केवट फिर आप कैसे वहन करते हों।
 चुभते कांटों के बीच झकझोरती असहनीय तीक्ष्ण पछुआ हवाएं ये सब कैसे सहन करते हों ।।

मलिन सा मुख पर तेजता जिगर में साहस और निडरता।
चूंगते तोड़ते हुए फलों को और पेड़ के पत्तों को निहारता।।
 बरबाद न हों जाय यूंही कहीं सालों की ये कच्ची जमा पूंजी
इसीलिए शायद कभी - कभी ये बात अपने मन में विचारता।।

कड़कती बिजली से भीं भयमुक्त परिवार को भरण पोषण करनेवाले 
मेंहनतकश आप वीर ही नहीं महावीर लगे।
हां अपने बागों के रखवाले ऐसी बेरहम बेदर्द मौसम में भीं  फलचुनने वाले हे 
दीनहीन महापुरुष आप अधीर लगे।।

न खुद की फिकर है तुम्हें , न ही ख़ुद की हैं कोई खबर
कैसे करते हों इतने कठिन काम  ये हैं आराम की उमर।।
आता भीं नहीं बाबा कहीं आपको विषैले जीवजन्तु नज़र।
झाँकता हूं जो तेरे अंदर बड़ा मुश्किल लगा तेरा गुजर बसर।।

मालूम है  तुम ये कच्चे पक्के अमरूद खुद खाओगे नहीं।
बेच आओगे सस्ते दामों पर बाजारों में शर्माओगे नहीं।
तरुवर फल नहीं खात हैं पंक्ति जचता हैं तुम्हारे ऊपर।
स्वयं भूखे रह जाओगे पर एक आह तक कर पाओगे नहीं।।

कभी कभार हमे मोह लगता हैं तेरी बदनसीबी देखकर ।
तरस आता हैं तेरी मशुमियता पर धुंधली लकीरे पढ़कर।।
कमर में लिपटी एक लूंगी फटी एड़ियां तलवे इधर उधर 
रोना आता हैं तेरी तकदीर पर  पाता हूं सबको निरूतर।।

क्या गरीबों की गरीबी।   बेची नहीं जा सकती ,
क्या अमीरों की अमीरी खरीदी नहीं जा सकती।।
क्या दरिद्र होने का बस यहीं  मोल हैं।
क्या संसार मे गरीब का कुछ  नहीं रोल हैं ।।

  कोई भटके बंजारे बनकर वन वन को शर्म आता है सोचकर आदमी की अदमीयता पर ।
 क्यों कब और कैसे उठते हैं ऊंगली जब किसी की काबिलियता पर अश्लीयता पर ।।

प्रशन हैं क्या फलविक्रेता की दुर्दिन व्यथित दशा फलखाने वाले साहब लोगों को समझ नहीं आती।।
चखते हैं परखते हैं खट्टे मीठे स्वाद खरीदने से पहले लोग  क्या तराज़ू का वजन बराबर नहीं हों पाती।।

स्वरचित -, प्रकाश विद्यार्थी

©Prakash Vidyarthi
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