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Manmanth Das
ओस से भींगीं नम हुई नई हरी दूब, कोमल फसलें व नव यौवन लिए मंद मुसकाते हुए, कुछ पुष्प लताएँ कोंपलों को समेटे नए हरे पत्ते और कलियाँ सकुचाते हुए , कल्लोलित खग वृंद मधुर प्रस्फुटित स्वर में गुनगुनाते हुए, अलसी रही झूम प्रिय के स्वागत में अपने हृदय के समस्त भाव बिछाते हुए, वसुंधरा धर रही नित बसंती परिधान ऋतुराज की राह में पलकें बिछाते हुए, आम्र कुंज से मधु चुराकर मादक कोकिल चिहुँक रही जाने कब से अपने प्रिय को बुलाते हुए, और उतारकर चादरें धुंध की बसुधा देखो झुरमुट से झांक रही मानो देखा है उसने पीले सरसों के पीछे से बसंत को आते हुए। मन्मंथ् ✍ ©Manmanth Das #बसंत #कविता #रचना #मन्मंथ
बसंत कविता रचना मन्मंथ
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।।नशा छोडिये।। नशा छोड़िये , नशा छोड़िये , नशा छोडिये, जीने की तरफ, रुख मोड़िये , रुख मोड़िये । किसका हुआ भला यहां,नशे ने किसकी जान बचाई है। चरस गांजा अफीम से हुआ कौन कब किसका भाई है ? हमने दुश्मन ही बनते देखे ,नशे में बिखरते रिश्ते देखे , इन बिखरे रिश्तो की लाज बचाने को तो नशा छोड़िये , नशा छोडिये, नशा छोड़िये, जीने की तरफ रुख मोड़िये , रुख मोड़िये । मां-बाप आस लगाए बैठै हैं कि बेटा घर लौट आयेगा , वो नशे में हो धुत तो मां-बाप पर क्या क्या बीत जायेगा ? हमने टूटते देखे मां बाप, इन आंखो में बुनते सपने देखे , इन सपनो को हकीकत बनाने को तो नशा छोड़िये, नशा छोड़िये नशा छोड़ियें, जीने की तरफ रुख मोड़ियें , रुख मोड़ियें । नन्हे बच्चो की आंखो में तुमको सुपर मैन होते देखा है, इतंजार भरी आंखो में पत्नी को क्या कभी तुमने देखा है? हमने वो सब अरमां देखें, परिवार में तुम खुदा होते देखे, इस खुदाई में घर की खुशियां लाने को तो नशा छोड़िये, नशा छोड़िये, नशा छोड़िये, जीने की तरफ रुख मोड़िये, रुख मोड़िये। इंजै्क्शन चिट्टा लेने वालो तुमको मौत बुरी तरह तड़पायेगी , ये नशे की आदत कब तक जुर्म की दुनियां से बचायेगी ? हमने जब भी देखे पांव तुम्हारे, हवालात या शमशान में देखे , शमशान व मौत के इस चंगुल से बचने को तो नशा छोड़िये, नशा छोड़िये, नशा छोड़िये । हाथ जोड़कर विनती है नशा छोड़िये । #पवन कुमार वर्मा । #कविता गीत
RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित'
जिन आँखों में बंजर दुनिया। उनकी खातिर पत्थर दुनिया।। बैठे सौ सम्वाद अकेले, घूर रहे सागर के जल को। तूफानों के शब्द हृदय में, देख रहे लहरों के छल को। मोती जाने कहाँ छुपा हो, निकले जिसमें सुन्दर दुनिया।। प्रश्न अकेले पड़े वहाँ पर, जहाँ कुतर्कों का रेला था। उत्तर भी हो गये निरुत्तर, खेल कुमति ने यों खेला था। अंदर-अंदर व्याकुलता है, अपनी धुन में बाहर दुनिया।। निष्ठुरता के निर्जन वन में, कौन हृदय की पीड़ा समझे। ढोलों की धमकी के आगे, क्या होती है वीणा समझे। कटु सच है पर भोले मन को, दे देती है ठोकर दुनिया।। भले नहीं है आज द्रोपदी, किन्तु पुनः संवेग दाँव पर । जलती-तपती धूप अड़ी है, अपना दावा लिये छाँव पर । कैसे आज दिखाऊँ सबको, कैसी मेरे अंदर दुनिया।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #पत्थर_दुनिया #गीत #कविता
पत्थर_दुनिया गीत कविता
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मेरे स्वप्नों के निलय को, तुम नया आकार देना। प्रेम के प्यासे ह्रदय को, ढेर सारा प्यार देना।। मन के' कोमल से पटल पर, चित्र कुछ अंकित किये हैं। थे अचेतन किन्तु तुमने, प्राण उनको दे दिये हैं। हर सहज संकल्पना को, भावना साकार देना।। दुःख के मौसम जब दिखे, तब-तब तुम्हें दिल ने पुकारा। सुख के' नन्दन वन में फैला, है प्रिये चन्दन तुम्हारा। वक़्त के दोनों सिरों को, जन्मों तक आधार देना।। प्रेरणा के स्वर सुकोमल, बन मेरे मानस में आओ। मैं तुम्हें जब भी पुकारूँ, तुम मेरे अन्तस में आओ। गीत बन इस साधना की, चेतना को धार देना।। जब से तुम आये तो गीतों ने नये शृंगार छेड़े। ले हिलोरें मन सरित ने फिर नये उद्गार छेड़े। सर्जना को पंख देकर, नव सृजित संसार देना।। है सवेरा भी अचम्भित, देख मुख की ताजगी को। छंद के शैशव चकित हैं, देख कर इस सादगी को। तुम यों' ही शृंगार सरिता, को सतत विस्तार देना।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #ढेर_सारा_प्यार_देना #कविता #गीत
ढेर_सारा_प्यार_देना कविता गीत
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दौड़ रहे हैं आँख मूँद कर सपनों के पीछे गिद्ध, छडूंदर, घोड़ा, हाथी, चमगादड़, तीतर।। सरस्वती लक्ष्मी के हाथों की है कठपुतली। कालिख भी मँहगे चश्मे से दिखती है उजली। स्वाभिमान की अर्थी ढोती रोज सवेरे साँझ मैना आती जाती है अब कौवा जी के घर।। सत्य झूठ की बैसाखी पर लँगड़ाता चलता। और खोखले आदर्शों के टुकड़ों पर पलता। धर्म, न्याय, सन्मार्ग, नीति सब त्याग चुके हैं प्राण दुराचार को नहीं रहा अब हाकिम जी का डर।। हंस भूल बैठे हैं अपनी क्षमताएँ सारी। स्वयं अपाहिज प्रतिभा ओढ़े बैठी मक्कारी। संत बने अब घूम रहे हैं बगुला और सियार खोल चुके हैं जगह-जगह पर लालच के दफ्तर।। चातक नजरें खोज रही हैं एक बूँद पानी। बादल सत्तासीन हुए पर करते मनमानी। फसलों से अनुबंध तोड़कर बदल गये हैं खेत किन्तु लबालब भरा हुआ है यह खारा सागर।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #दौड़_रहे_हैं #कविता #गीत
दौड़_रहे_हैं कविता गीत
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सौंप जो मुझको गये थे, क्षण कभी अनुराग के तुम मैं उन्हीं सुधियों के’ कोमल, गीत गाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। कब भला आसान होता, आग साँसों की बुझाना। सागरों का नीर खारा, नित्य पीना, मुस्कुराना। किन्तु तुम लेकर गये थे, जो वचन उसके लिए ही, कहकहों में आँसुओं को, मैं छिपाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। आँच पाकर कौन होगा, वृक्ष जो मुरझा न जाये। ओस के तपते कणों से, कोपलें कैसे बचाये। गर्भ में ज्वालामुखी है, और बहता सुर्ख लावा, पर सतह पर हिम नदी सा, गुनगुनाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। कब बिना अनुमति तुम्हारी, फूल उपवन में खिला है। प्रेरणा हो या हताशा, जो मिला तुमसे मिला है। बुझ गया होता प्रणय आराधना उपरांत, लेकिन दीप हूँ संकल्प का मैं, तम मिटाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #मीत_मुड़कर_देख_लेना #गीत #कविता
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