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Amit Gupta
ये धूप, तू मान मेरी ये धूप, तेरा यूं नित्य बढ़ना लाजमी है मानता हूं मैं, तेरी तपन तुझको मानवों ने ही दिए, जानता हूं मैं पर क्या तू भी बन जाओगी निर्मोही और निष्ठुर तू मान मेरी, कर दे ऐसी सभी नाराजगी तू दूर मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । आकांक्षाओं कि परिसिमा लांघते गए ओ इस कदर पेड़ काटे, पर्वत - पहाड़ तोड़े, और न जाने क्या-क्या किए दर्द तेरी समझता हूं, ऐसे ही नहीं ढा रही तू ये कहर पर तुझसे से तो हमने ना कभी ऐसी उम्मीद किए मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । अच्छे, बुरे, लोभी, लालची, मतलबी चाहे जैसे भी आखिर ये भी तो तेरे संग ही रहते, तू रखे चाहे जैसे भी मान जा, तू जिद न कर, बढ़ तू पर न इस तरह देख, प्रकृति प्रेमियों के भी आंसू बने पसीने कि तरह मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । नन्हे बच्चों की अभी छुट्टियां भी तो नहीं हुई तेरी तपन उन्हें तड़पाती है, न जाऊंगा स्कूल, कहलवाती है ये भविष्य कल के, पढ़ कर समझेंगे तेरी वेदना को तू भी तो समझ बागों से दूर होते इनकी संवेदना को मेरी सुन, खामोखां तू दिन-ब-दिन बढ़ रही है तेरी तपन से पिघल जाए ऐसा कोई दिल नहीं है । प्रकृति प्रेम @ प्रकृति की तपन
प्रकृति प्रेम @ प्रकृति की तपन
read moreSuman Rathore
सोचो जिंदगी में प्रकृति का क्या महत्व है सोचो क्यों सुबह सुबह सूरज उगता है क्यों ये कभी सुबह उदय होने की शिकायत नहीं करता सोचो नदिया क्यों है, पेड़ क्यों है सोचो क्यों ये कभी अपना उपयोग करने को मना नहीं करते सोचो क्या संदेश देती है ये प्रकृति ..... ये मनुष्य को कुछ सीखने के लिए है ये सब यह सिखाती है की मनुष्य पृथ्वी पर कुछ देने आया है जो कुछ उसके पास है दान करने आया है सोचो ©Suman Rathore प्रकृति की सिख
प्रकृति की सिख #Poetry
read moreSatya Verma
प्रकृति हर क्षण में आपको कुछ नया करने की सीख देती है। © Satya Verma प्रकृति की सीख
प्रकृति की सीख #विचार
read moreDeepali Singh
प्रकृति की हुँकार कब से आस लगाये बैठी थी ये प्रकृति इसे भी मिल जाए सांस लेने की अनुमति धुआँ ही धुआँ दिखता था हर जगह और हो रहे थे ज़ुल्म इसपर बेवजह ढूंढ रही अपने अस्तित्व को जाने कब से, चुप बैठी थी गुमसुम सी इतने वर्षों से ठहरी थी जिंदगी बहुत दूर इससे पर ऐसी बर्बादी कतई ना थी मंज़ूर इसे, रहती थी खोई सी,खामोशियों मे सोई थी उन दूषित गर्म हवाओं में खुद को पिरोई भी काया से इसके लिपट कर वायु ने स्वच्छ शीतल चंचल उड़ान था भरा उन नर्म साँसों में, ठहरी ठंडी रातों में सरसराते इठलाते बहकते पत्तों में, धड़कते पत्थर के उन सहमे दरारों में छुकर अपने धरा के कर कण-कण को मस्ती में इतराते अपने हस्ती पे फ़िर उड़ता चला चुमने गगन को वो मतवाला मनचला बहता चला आज़ाद सोंच में झूमता उठता रहा फिर कैद हुआ कुछ के क्रूर गुरुर से और तड़प रहा गुब्बारों में तो सिलेंडर में सुकून सा देकर तेरे घुँटते फेफड़ों को जो जीवन दिया वो ये वायु ही तो जिताकर तुझे ऐसे जीवन जंग से लौटना है इन्हें उपवन जंगल में जो बनाता रहा दूरी कुदरत से क्या खोया है ज़रा पूछ खुद से प्रकृति के आगे हम मजबूर ठहरे इनकी नज़रों से कुछ भी नहीं परे प्रकृति को हमारी ज़रूरत नहीं पर हमें प्रकृति की ज़रूरत ज़रूर है यूँही नहीं प्रकृति को खुद पर गुरुर है तभी तो प्रकृति खुद मे मगरूर है ©Deepali Singh प्रकृति की हुंकार
प्रकृति की हुंकार
read moreBalmiki Choudhary
बहुत धूप है चलो कुछ देर बिताएं छांव में, माँ धरती की गोद प्रकृति की बांह में, एक हीं रंग जहाँ मन में उमंग वहाँ, जीता न जहाँ कोई किसी गुमां में, बहुत धूप है चलो कुछ देर बिताएं प्रकृति की छांव में। चलो कुछ देर बिताएं प्रकृति की छांव में प्रकृति की छांव
प्रकृति की छांव
read moreRJ Gumnam
देश दुनिया की बात कहूं में , जात पात की बात कहूं में। कोई कहे हिन्दू कोई कहे मुस्लिम , कोई सिख ईसाई सहू में।। बात बात पर दंगे होते ,धर्म के नाम से पंगे होते। जनमानस कोहराम मचाते,धर्म अधर्म का युद्ध लड़ाते।। ये देख प्रकृति घबराई, ये कैसी मुश्किल घर आई। मैने तो मानवता बनाई ,मानव ने की अधर्म लड़ाई।। प्रकृति को हुआ दुख भारी, क्यों मानव की अत्याचारी। जीवन जीव की वस्तु सारी, प्रकृति से हर चीज हमारी।। प्रकृति का अब गुस्सा भारी, खैर नहीं सुन अत्याचारी। जीवन लूंगी बारी बारी, तब सुधरोगे नरसंहारी।। अलग अलग तुम रहना चाहो, अपने अपने घर छुप जाओ। प्रकृति की मार है ये , प्रकृति का अभिशाप है ये अब मानवता में डर है भारी, ये कैसी मानस महामारी प्रकृति से खिलवाड़ करोगे , तड़प तड़प घर जाय मरोगे जो प्रकृति के नियम को तोड़े, अपनी किस्मत खुद ही फोड़े *RJ Gumnam* *Ravi Kumar Jha* * प्रकृति की मार *
* प्रकृति की मार *
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