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Prashant yadav
बचपन में क्या- क्या थे सपने सजाए बचपना था, परिस्थिति को महसूस ना कर पाए जिनकी पहुंच सर को ढकने तक की नहीं वो चांद-तारे कहां से तोड़ लाए दिन तो ऐसे हीं निकल जाता है सोच में सुबह को जैसे-तैसे हुआ शाम को कहां से आयेगा खाना कुछ लेकर ना आया ना लेकर है जाना फिर भी नहीं बदला जमाना चाह कर भी खुद के लिए कुछ कर पाते नहीं लाख कोशिश कर लें पर हालातों से पीछा छुड़ा पाते नहीं खुद के नजरों को समाज के नजरों से मिला पाते नहीं वे इन सभ्य समाजों की तरह चेहरे बदल पाते नहीं इनके हालातों से कौन है अनजाना फिर भी नहीं बदला जमाना। कविता -अंतिम भाग ©Prashant yadav #DIL#KE#ALFAZ#JINDAGI#PHOOTPATH#KI #vacation
Prashant yadav
धुंध से निकलकर है धुआं हो जाना आंखे मूंद कर आना और मूंदे ही चले जाना मृत्यु तो अटल सत्य है इसे है सब किसी ने माना फिर भी नहीं बदला जमाना सबकी हैसियत बदली है नियत नहीं सपनों के शहर में बहुत दूर निकल गए हैं पर हकीकत तो है वहीं की वहीं कहीं भूख से मरते हैं कहीं ठंड से तन को ढकने की नाकाम कोशिश कैसे करें जिनका पेट भी भरता नहीं किसको स्वर्ग मिला किसको नरक आज तक किसी ने नहीं जाना फिर भी नहीं बदला जमाना कविता पार्ट -1 ©Prashant yadav #DIL#KE#ALFAZ#JINDAGI#PHOOTPATH#KI #alone
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