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Author Harsh Ranjan
उसकी कमजोरी शायद किसी तहखाने में बंद है, यही चर्चा में है आज, यही द्वंद है। मैंने उस बुजुर्ग से पूछा है नजरों नजरों में, ये पर्वत कब तक टूटेगा? उसने कहा, बस हथौड़ा और वक़्त साथ रहे। मैं उसपर भरोसा करने को मजबूर हूँ। कोई कहता है कि भाई हथौड़ा लेकर पर्वत से लड़ने वाले विश्वास के काबिल नहीं होते। मुझे लगता है कि इस घोर कलयुग में रक्त में राम न हों पर थाली में रोटी चाहिए, इस बात का भरोसा किया जा सकता है? बुजुर्ग और पर्वत
बुजुर्ग और पर्वत
read moreAuthor Harsh Ranjan
अपने हाथों के लिए पसीजना था, पर उसे कोई रोता नहीं देखता, उसकी आँखों को बाट जोहता नहीं देखता। लोग बस घड़ी की टिक-टिक सुनते हैं, जो बेपरवाह बढ़ा जा रहा है, हर जड़ हर जीवित चला जा रहा है। शायद वो बुजुर्ग तब तक खड़ा रहेगा जब तक पर्वत और वक़्त चाहता है, वो पता नहीं किस कमरे के किस अंधेरे कोने में बौखता है, अलबलाता है, पर वो हर बार टशन से सामने आता है, लगता है कि उसने कल ही कोई छोटी लड़ाई जीती हो, जैसे उसके दिमाग में कोई गुप्त रणनीति हो। बुज़ुर्ग और पर्वत
बुज़ुर्ग और पर्वत
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अपने हाथों के लिए पसीजना था, पर उसे कोई रोता नहीं देखता, उसकी आँखों को बाट जोहता नहीं देखता। लोग बस घड़ी की टिक-टिक सुनते हैं, जो बेपरवाह बढ़ा जा रहा है, हर जड़ हर जीवित चला जा रहा है। शायद वो बुजुर्ग तब तक खड़ा रहेगा जब तक पर्वत और वक़्त चाहता है, वो पता नहीं किस कमरे के किस अंधेरे कोने में बौखता है, अलबलाता है, पर वो हर बार टशन से सामने आता है, लगता है कि उसने कल ही कोई छोटी लड़ाई जीती हो, जैसे उसके दिमाग में कोई गुप्त रणनीति हो। बुज़ुर्ग और पर्वत
बुज़ुर्ग और पर्वत
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वो पेशानी का पसीना पोंछता है, उसके कलेजे पर शिला-लेख से गुदे पड़े हैं उसके आदर्श, उसे याद है माँ की दी पहली सीख से कल की हार का अनकहा परामर्श। उसने देखा है जंगल को जलते, उसने देखा था उसी जंगल में फल-फूलों को फलते, उसने पाया है धूआँ और शोर, उसने प्रतीक्षा में गुजारी है सैंकड़ों शामें, अनगिनत प्रहरें और। सब सब कुछ देखते हैं, मैं पर्वत पर उसके हथौड़े की चोट देखता हूँ, लोग वक़्त-बेवक़्त देखते हैं, मैं नित-रोज देखता हूँ। उसे बंधे हाथों पर खीजना था, उसे अपनी मजबूरी पर बुजुर्ग और पर्वत
बुजुर्ग और पर्वत
read moreAuthor Harsh Ranjan
किसी ने दाढ़ी देखी, किसी ने कुर्ता, किसी ने पेशानी देखी, किसी ने जूता। पर मैं एक इंसान देख रहा हूँ एक अजेय से दिखने वाले पर्वत के आगे, मौन आँखों से, महत लक्ष्य साधे। ये दहलीज जिस तक वो भागता आया था, आज उसके पार के संसार ने उसे रेंगना सिखाया था, उपकरण से हीन थका-थका सा, वातावरण की आग से पका-पका सा, बुजुर्ग और पर्वत
बुजुर्ग और पर्वत
read moreAuthor Harsh Ranjan
बुजुर्ग शायद पर्वत या कि हथौड़ा तोड़ ले, गिरते विश्वास से, ठंडी पड़ती आस से, घिरे उपहास से, निर्जला लंबे उपवास से, सहस्त्रों वर्षों के वनवास से जीतकर बस घड़ी गिननी है हमें इतना अंत भी सौ युगों की प्रेरणा है, या तो बुजुर्ग का नाम, या पर्वत का आयाम जियेगा। जो भी हो किसी एक का नाम रहेगा। बुजुर्ग और पर्वत
बुजुर्ग और पर्वत
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उसकी कमजोरी शायद किसी तहखाने में बंद है, यही चर्चा में है आज, यही द्वंद है। मैंने उस बुजुर्ग से पूछा है नजरों नजरों में, ये पर्वत कब तक टूटेगा? उसने कहा, बस हथौड़ा और वक़्त साथ रहे। मैं उसपर भरोसा करने को मजबूर हूँ। कोई कहता है कि भाई हथौड़ा लेकर पर्वत से लड़ने वाले विश्वास के काबिल नहीं होते। मुझे लगता है कि इस घोर कलयुग में रक्त में राम न हों पर थाली में रोटी चाहिए, इस बात का भरोसा किया जा सकता है? बुजुर्ग और पर्वत
बुजुर्ग और पर्वत
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किसी ने दाढ़ी देखी, किसी ने कुर्ता, किसी ने पेशानी देखी, किसी ने जूता। पर मैं एक इंसान देख रहा हूँ एक अजेय से दिखने वाले पर्वत के आगे, मौन आँखों से, महत लक्ष्य साधे। ये दहलीज जिस तक वो भागता आया था, आज उसके पार के संसार ने उसे रेंगना सिखाया था, उपकरण से हीन थका-थका सा, वातावरण की आग से पका-पका सा, बुजुर्ग और पर्वत
बुजुर्ग और पर्वत
read moreVidhi
पर्वत और सागर दोनों ही उम्मीदवार थे राजकुमारी के हाथों अपना नसीब लिखाने आये थे चुनेगी वो सागर के दिल की गहराई या फिर गले लग जाएगी फौलादी पर्वत की बाँहों में उसने सोचा, कई बार परख कर देखा पहले साग़र की तली में गोता लगाकर, फिर पर्वत के शिखर पर बैठे ठंड में ठिठुराते हुए लेकिन बरसों बीत गए, उम्मीदवारी चलती रही वो कभी पर्वत के गर्वीले एकाकी स्वभाव को देखती तो कभी साग़र के रहस्यमयी गहराई में डूब जाती फिर भी कहीं ना कहीं आकर बात ठहर जाती इश्क़ हो चला था उसे साग़र की ठंडी सी उतराती लहरों से तो कम मदहोश ना होती जब पर्वत की बाँहों में बैठ जाती सारी उम्र वो खुद से जिरह करती गयी, अपने दिल को मजबूर पाकर खुद को मिट्टी फिर जमींदोज करती गयी बिछ गयी सागर के चारों ओर खुद को जर्रा जर्रा करके मग़र लिपटती भी गयी पर्वत की चौड़ी छातियों में जाकर अपनी ज़ात भूल गयी जिनके इश्क़ में आज वो दोनों ही उसके महबूब हैं मग़र किसी को पता नहीं उसके दिल असल में कौन है? #पर्वत और #सागर