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Amit Singhal "Aseemit"
भीषण गर्मी के मौसम में जब सहसा, पानी ज़ोरों से, इस धरती पर ऐसे बरसा। भीग गया सभी का तन और अंतर्मन, रेगिस्तान सा मन, बन गया जैसे उपवन। ©Amit Singhal "Aseemit" #सहसा
dayal singh
जब कभी भी हमें अपने बचपन की याद आती है तो कुछ बातों को याद करके हम हर्षित होते हैं, तो कुछ बातों को लेकर अश्रुधारा बहने लगती है। हम यादों के समंदर में डूबकर भावनाओं के अतिरेक में खो जाते हैं। भाव-विभोर व भावुक होने पर कई बार हमारा मन भीग-सा जाता है। हर किसी को अपना बचपन याद आता है। हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की अपनी मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहन, यार-दोस्त, स्कूल के दिन, आम के पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' आम खाना, खेत से गन्ना उखाड़कर चूसना और खेत मालिक के आने पर 'नौ दो ग्यारह' हो जाना हर किसी को याद है। जिसने 'चोरी से' आम नहीं खाए व गन्ना नहीं चूसा, उसने क्या खाक अपने बचपन को 'जीया' है! चोरी और चिरौरी तथा पकड़े जाने पर साफ झूठ बोलना बचपन की यादों में शुमार है। बचपन से पचपन तक यादों का अनोखा संसार है। वो सपने सुहाने ... छुटपन में धूल-गारे में खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना, मिट्टी खाना किसे नहीं याद है? और किसे यह याद नहीं है कि इसके बाद मां की प्यारभरी डांट-फटकार व रुंआसे होने पर मां का प्यारभरा स्पर्श! इन शैतानीभरी बातों से लबरेज है सारा बचपन। तोतली व भोली भाषा बच्चों की तोतली व भोली भाषा सबको लुभाती है। बड़े भी इसकी ही अपेक्षा करते हैं। रेलगाड़ी को 'लेलगाली' व गाड़ी को 'दाड़ी' या 'दाली' सुनकर किसका मन चहक नहीं उठता है? बड़े भी बच्चे के सुर में सुर मिलाकर तोतली भाषा में बात करके अपना मन बहलाते हैं। जो नटखट नहीं किया, वो बचपन क्या जीया? जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारत या नटखट नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जीया होगा, क्योंकि 'बचपन का दूसरा नाम' नटखट ही होता है। शोर व उधम मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं तथा हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो आती है। वो पापा का साइकल पर घुमाना... हम में अधिकतर अपने बचपन में पापा द्वारा साइकल पर घुमाया जाना कभी नहीं भूल सकते। जैसे ही पापा ऑफिस जाने के लिए निकलते हैं, तब हम भी पापा के साथ जाने को मचल उठते हैं, तब पापा भी लाड़ में आकर अपने लाड़ले-लाड़लियों को साइकल पर घुमा देते थे। आज बाइक व कार के जमाने में वो 'साइकल वाली' यादों का झरोखा अब कहां? साइकलिंग थोड़े बड़े होने पर बच्चे साइकल सीखने का प्रयास अपने ही हमउम्र के दोस्तों के साथ करते रहे हैं। कैरियर को 2-3 बच्चे पकड़ते थे व सीट पर बैठा सवार (बच्चा) हैंडिल को अच्छे से पकड़े रहने के साथ साइकल सीखने का प्रयास करता था तथा साथ ही साथ वह कहता जाता था कि कैरियर को छोड़ना नहीं, नहीं तो मैं गिर जाऊंगा/जाऊंगी। लेकिन कैरियर पकड़े रखने वाले साथीगण साइकल की गति थोड़ी ज्यादा होने पर उसे छोड़ देते थे। इस प्रकार किशोरावस्था का लड़का या लड़की थोड़ा गिरते-पड़ते व धूल झाड़कर उठ खड़े होते साइकल चलाना सीख जाते थे। साइकल चलाने से एक्सरसाइज भी होती थी। हाँ, फिर आना तुम मेरे प्रिय बचपन! मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा ताउम्र!! राह तक रहा हूँ मैं!!!जब कभी भी हमें अपने बचपन की याद आती है तो कुछ बातों को याद करके हम हर्षित होते हैं, तो कुछ बातों को लेकर अश्रुधारा बहने लगती है। हम यादों के समंदर में डूबकर भावनाओं के अतिरेक में खो जाते हैं। भाव-विभोर व भावुक होने पर कई बार हमारा मन भीग-सा जाता है। हर किसी को अपना बचपन याद आता है। हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की अपनी मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहन, यार-दोस्त, स्कूल के दिन, आम के पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' आम खाना, खेत से गन्ना उखाड़कर चूसना और खेत मालिक के आने पर 'नौ दो ग्यारह' हो जाना हर किसी को याद है। जिसने 'चोरी से' आम नहीं खाए व गन्ना नहीं चूसा, उसने क्या खाक अपने बचपन को 'जीया' है! चोरी और चिरौरी तथा पकड़े जाने पर साफ झूठ बोलना बचपन की यादों में शुमार है। बचपन से पचपन तक यादों का अनोखा संसार है। वो सपने सुहाने ... छुटपन में धूल-गारे में खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना, मिट्टी खाना किसे नहीं याद है? और किसे यह याद नहीं है कि इसके बाद मां की प्यारभरी डांट-फटकार व रुंआसे होने पर मां का प्यारभरा स्पर्श! इन शैतानीभरी बातों से लबरेज है सारा बचपन। तोतली व भोली भाषा बच्चों की तोतली व भोली भाषा सबको लुभाती है। बड़े भी इसकी ही अपेक्षा करते हैं। रेलगाड़ी को 'लेलगाली' व गाड़ी को 'दाड़ी' या 'दाली' सुनकर किसका मन चहक नहीं उठता है? बड़े भी बच्चे के सुर में सुर मिलाकर तोतली भाषा में बात करके अपना मन बहलाते हैं। जो नटखट नहीं किया, वो बचपन क्या जीया? जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारत या नटखट नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जीया होगा, क्योंकि 'बचपन का दूसरा नाम' नटखट ही होता है। शोर व उधम मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं तथा हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो आती है। वो पापा का साइकल पर घुमाना... हम में अधिकतर अपने बचपन में पापा द्वारा साइकल पर घुमाया जाना कभी नहीं भूल सकते। जैसे ही पापा ऑफिस जाने के लिए निकलते हैं, तब हम भी पापा के साथ जाने को मचल उठते हैं, तब पापा भी लाड़ में आकर अपने लाड़ले-लाड़लियों को साइकल पर घुमा देते थे। आज बाइक व कार के जमाने में वो 'साइकल वाली' यादों का झरोखा अब कहां? साइकलिंग थोड़े बड़े होने पर बच्चे साइकल सीखने का प्रयास अपने ही हमउम्र के दोस्तों के साथ करते रहे हैं। कैरियर को 2-3 बच्चे पकड़ते थे व सीट पर बैठा सवार (बच्चा) हैंडिल को अच्छे से पकड़े रहने के साथ साइकल सीखने का प्रयास करता था तथा साथ ही साथ वह कहता जाता था कि कैरियर को छोड़ना नहीं, नहीं तो मैं गिर जाऊंगा/जाऊंगी। लेकिन कैरियर पकड़े रखने वाले साथीगण साइकल की गति थोड़ी ज्यादा होने पर उसे छोड़ देते थे। इस प्रकार किशोरावस्था का लड़का या लड़की थोड़ा गिरते-पड़ते व धूल झाड़कर उठ खड़े होते साइकल चलाना सीख जाते थे। साइकल चलाने से एक्सरसाइज भी होती थी। हाँ, फिर आना तुम मेरे प्रिय बचपन! मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा ताउम्र!! राह तक रहा हूँ मैं!!! bachpan ke din
bachpan ke din
read moreSandeep L Guru
एक दिन सहसा सूरज निकला अरेक्षितिज पर नहीं नगर के चौकः धूप बरसी पर अन्तरिक्ष से नहीं, फटी मिट्टी से । छायाएँ मानव -जन की दिशाहीन सब ओर पडी़ -वह सूरज नहीं उगा था पुरब में, वह बरसा सहसा एक वृक्ष की हत्या
एक वृक्ष की हत्या
read moreShubham Tripathi
सहसा मैंने सूरज देखा आंखे चमक गयी मेरी मैं बोला क्यों आंख दिखाते कुछ भी विसात नहीं तेरी सहसा मैंने सूरज देखा लिए लुकाटी बैठे है जो सूरजु काका खेत में तन पर उनके वस्त्र नहीं है तप्ती हुई इस जेठ में चमड़ी इनकी काली पड फिर भी डिगा न पाया तू इनको न तेरी धूप लगे न लगे कभी भी इनको लू सहसा मैंने सूरज देखा पीछे है चाँदनिया बैठी मैले भूरे बाल में, एक लंगोटी तन पर डाले मिट्टी लगी है गाल में सहनशीलता उसकी देखो उसको हटा न पाया तू खुद ही तू जल जायेगा फिर भी पयेगा न उसको छू सहसा मैंने सूरज देखा तेरी अकड़ कहा चलती है बड़े बड़े से महलों में यहाँ सृजन का देव है बैठा व्यस्त है अपने टहलों में कोशिश तू कितना भी करले कितना आंख दिखा ले तू इनको न तेरी धूप लगे न लगे कभी भी इनको लू सहसा मैंने सूरज देखा आंखे चमक गयी मेरी मैं बोला क्या आंख दिखाते कुछ भी बिसात नहीं तेरी #सहसा मैंने सूरज देखा आंखे चमक गयी मेरी मैं बोला क्यों आंख दिखाते कुछ भी विसात नहीं तेरी सहसा मैंने सूरज देखा लिए लुकाटी बैठे है जो सूरजु काका खेत में
#सहसा मैंने सूरज देखा आंखे चमक गयी मेरी मैं बोला क्यों आंख दिखाते कुछ भी विसात नहीं तेरी सहसा मैंने सूरज देखा लिए लुकाटी बैठे है जो सूरजु काका खेत में
read moreAnil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12 ।।श्री हरिः।। 7 - निष्ठा की विजय 'मैं महाशिल्पी को बलात् अवरुद्ध करने का साहस नहीं कर सकता।' स्वरों में नम्रता थी और वह दीर्घकाय सुगठित शरीर भव्य पुरुष सैनिक वेश में भी सौजन्य की मूर्ति प्रतीत हो रहा था। वह समभ नहीं पा रहा था कि आज इस कलाकार को कैसे समभावें। 'मेरे अन्वेषक पोतों ने समाचार दिया है कि प्रवाल द्वीपों के समीप दस्यु-नौकाओं के समूह एकत्र हो रहे हैं। ये आरब्य म्लेच्छ दस्यु कितने नृशंस हैं, यह श्रीमान से अविदित नहीं है और महाशिल्पी सौराष्ट्र के
read moreAnil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 12 ।।श्री हरिः।। 5 - स्वस्थ समाज आज की घटना नहीं है, लगभग 35 वर्ष हो चुके इसे। उस वर्ष हिमालय में हिमपात अधिक हुआ था। श्रीबद्रीनाथजी के मन्दिर के पट वैसे सामान्य स्थिति में अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल 3) को खुल जाया करते हैं, किन्तु मैं जब जोशीमठ पहुँचा तो यात्री वहीं रुके थे। पट तब तक भी खुले नहीं थे। मैं अक्षय तृतीया वृन्दावन ही करके चला था। मार्ग में तीन-चार दिन तो ऋषिकेश तक में ही रुकते-रुकाते लगे थे और तब मोटर बस केवल देवप्रयाग तक जाती थी। आगे का मार्ग
read moreMohan Jha
'मानव' आधा सत्य आधा असत्य! आधा नर आधा देव-राक्षस आधे-आधे! ख़ुशी हैं तो ग़म में ग़म ख़ुशी में! अजीब-सी हैं पहेली आत्मा-शरीर और मन! सासो में प्राण ह्रदय में कम्पन! एक आनंद की अनुभूति मन का! एक संतुष्टि तन का! एक मिलन! आत्मा परमात्मा की! एक विरह! संसार से, यात्राएं जन्मो की! प्रवर्तित तन-बदन से! निकल ते कब हम इस वन से माया जा ते ना अब मन से! अजीब-सी हैं पहेली.. एक में ही अनेक हो फिर भी तुम एक हो! तुम सब में सब तुम में हो! सम हो.. तुम 'मैं' 'मैं' तुम में 'हम' पर तुम-तुम-मैं-मैं वक़्त हैं देखो अब सहसा ठहर गई कैसे! एक-एक हो या दो तीन हो पर एक हो! वक़्त हैं देखो फिर सहसा चल पड़ी कैसे.. वाह-वाह हो तुम्हारी जय हो! ये हो वो हो फिर भी तुम पराजय हो! मान लो, ना मानो, या मान लो बात तो बदल गई! मान लो जो मानना हैं अब मान लो! अजीब-सी पहेली हो जय भी तुम्हारी हो पराजय तुम्हारी हो भाग्य-सौभग्य, सोच-समझ ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि-विचार सब तुम्हारी हो! तुम कुछ नहीं पर तुम 'मैं' हो! अब 'मैं' हो या तुम हो सब हो तभी तुम हो! क्या हो जब सब ना हो फिर तुम हो! तुम हो! तुम ही हो! और तुम क्या हो जब तुम ही हो! और क्या हो जब सब हो पर तुम ना हो ये हो वो हो जो हो सो हो! पर तुम क्या हो..? आधात्मिक कविता!
आधात्मिक कविता!
read moreNikhil Vairaagi
तुम भी चुप रहे, मैं भी मौन था आखिर बोलते भी क्या..? निःशब्द जो थे! अभी तो देखा था...उसे रही होगी उम्र चार-पांच की सनसनाती गर्म दुपहरी की हवाएं रुका था मैं भी किसी के इंतेजार में सहसा लगा यूँ..देख रहा हो कोई आस्तीन खिंचा किसी ने... नजर मिली, निस्तब्ध होगया देख दशा इस वर्तमान की सहसा कौंधी करुणा मन में, झबरे बाल, देंह श्यामल सी तन पर फटी कुचैली कुर्ती थी जूठी पत्तल हाथ में पकड़े देख रही इस भाव से मुझे भूखी आँखें उसकी, विह्वल सी हाथ दाहिना आगे कर मेरे अधरों पर उसने अपने एक कलापूर्ण मुस्कान धरी लाचारी बेबसी भूख का संगम उन अधरों पे दिखा शिक्षा का अभिमान टूटता उसके मंदित मुस्कान में दिखा भारत का कल आज डूबता उस मोहक मुस्कान में दिखा, लाचारी का तान छेड़ता बेबस एक इंसान दिखा क्या करता..? काले जीवन से उसके हमने भी मुँह मोड़ लिया जाते जाते नन्हे हाँथों पर उसके एक काला खोटा सिक्का छोड़ दिया..। #मैं_वो_और_मेरी_कलम✍️
मैं_वो_और_मेरी_कलम✍️
read moreAnil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11 ।।श्री हरिः।। 3 - दाता की जय हो! कुएँ पर रखा पत्थर पानी खींचने की रस्सी से बराबर रगड़ता रहता है और उस पर लकीरें पड़ जाती हैं; इसी प्रकार कोई एक ही शब्द बराबर रटा करे तो उसकी जीभ पर या मस्तिष्क पर कोई विशेष लकीर पड़ती है या नहीं, यह बताना तो शरीरशास्त्र के विद्वान का काम है। मैं तो इतना जानता हूँ कि जहाँ वह नित्य बैठा करता था, वहाँ का पत्थर कुछ चिकना हो गया है। श्रीबांकेबिहारीजी के मन्दिर के बाहर कोने वाली सँकरी सीढी के ऊपर वह बैठता था और एक ही रट थी उस
read moreAnil Siwach
|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 9 || श्री हरि: || 8 - सुहृदं सर्वभूतानाम् 'सावधान!' हवाईजहाज के लाउडस्पीकर से आदेश का स्वर आया। यह अंतिम सूचना थी। वह पहले से ही द्वार के सम्मुख खड़ा था और द्वार खोला जा चुका था। उसकी पीठ पर हवाई छतरी बँधी थी। रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में नीचे कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था। केवल आकाश में दो-चार तारे कभी-कभी चमक जाते थे। मेघ हल्के थे। वर्षा की कोई सम्भावना नहीं थी। बादलों के होने से जो अंधकार बढा था, उसने आश्वासन ही दिया कि शत्रु छतरी से कूदने वाले को देख नह
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