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Rabindra Kumar Ram
" वो हो रहे हैं जुदा मुझसे और देखता रह गया मैं , क्या बात इतनी खल गई , एक - एक पल कर के जुदा हो गया मैं." --- रबिन्द्र राम " वो हो रहे हैं जुदा मुझसे और देखता रह गया मैं , क्या बात इतनी खल गई , एक - एक पल कर के जुदा हो गया मैं." --- रबिन्द्र राम जुदा #खल #पल
kanaram gour
आज ठंडी-ठंडी सर्द हवाएँ चल रही है, मेरे जहन में तेरी मीठी-मीठी यादें पल रहीं हैं। तू दूर हो के भी मेरे दिल के पास है, फिर भी न जाने क्यूँ, एक कमी सी खल रही है। । ༒N𝓪Ƭ𝕂𝓱𝓪t N𝓪ω𝓪ℬ༒ ©Kanaram gour #आज ठंडी-#ठंडी सर्द हवाएँ चल रही है, मेरे #जहन में तेरी मीठी-मीठी #यादें पल रहीं हैं। तू #दूर हो के भी मेरे #दिल के #पास है, फिर भी न जाने क्यूँ, एक #कमी #खल रही है। । #good_morning
Maneesh Vishwakarma
क्यूँ रो रहा है, ये आंसमा ! क्यूँ सिसक रही है, ये जमीं !! मैं तो केवल एक था,माँ भारती का सर जवां ,तो कयूँ खल रही है, ये कमी ..... न चाहता था जो ,जीते जी मैं मिल गयी वहीं नमीं.... बहाया लहूँ, जो तेरे श्रंगार में न खल रही उसकी कमीं... चाहूँगा यही मैं अगले सौ जनम,मिले यही सर जमीं.... मैं तो केवल एक था तो क्यूँ रही खल रही है, ये कमी. ## वीर योद्धा, एक सैनिक के अपनत्व के कुछ शब्द जो वह माँ भारती का अलंकरण करने के पश्चात, अपनी धरा, अपनी मात्रभूमि की मिट्टी की सौधीं -2 सी खुशबू का अनुभव करके खुद से ही पूछता है !! ...जिसमें रज मात्र भी स्वार्थ नहीं है!!!!
## वीर योद्धा, एक सैनिक के अपनत्व के कुछ शब्द जो वह माँ भारती का अलंकरण करने के पश्चात, अपनी धरा, अपनी मात्रभूमि की मिट्टी की सौधीं -2 सी खुशबू का अनुभव करके खुद से ही पूछता है !! ...जिसमें रज मात्र भी स्वार्थ नहीं है!!!!
read moreविj
मैं मरीज़-ऐ-इश्क़ हूँ तुम्हारे , नाइलाज़ कोई । तुमसे छू कर जो हवाँ आती है, वो दवा बन जाती है।। मेरी रूह में उतर चुके हो इस क़दर, जैसे सीप में मोती। बारिश का बरसता पानी, खल-खल नदियों का बहता पानी।। अभी वक़्त का तकाज़ा है, थोड़ा तुम्हें मुझे समझना बाक़ी है। मैं तो खुली क़िताब हूँ, पढ़ लेना किसी भी पहलू में मुझे।। वो मधुर ध्वनि कानों को सुकू देती है,एक तुम ही मुझे सुकू देते हों। जाऊँ तो जाऊँ कहाँ, मेरी इबादत का इश्क़ मुक़मल यही होगा।। बिछड़ कर भी मिलते है मिलने वाले, तुम पहल दिखाओ ज़रा। क्यू चुप बैठे हो , बेवाक मन की बात समझाओ ज़रा।। - 🖋️मेरी_रूह #love
ADARSH SAHU
"आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी" आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी। बिन जलाएं स्वयं जल रहा है आदमी॥ चाहु ओर घेरे निराशा पड़ी है। जीवन में आई ये कैसी घड़ी है? सभी को सभी सुख चुभ रहा है। कोई किसी का भी दिखता नहीं है।। हर तरफ दिल में है अब आगजनी़। आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी॥ मन में कहीं शांति टिकती नहीं है। भाव संवेदना आज दिखती नहीं है॥ सिसकती गली है कंपाता डगर है। न जाने! किसकी लगी ये नज़र है॥ कहीं दिखती नहीं प्रेम की कोठारी। आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी॥ अब समय है विकट गिरती यह लपट। कौन है इसको बुझाए है प्रश्न! यह सबसे विकट॥ सारी मानवता बिखरी जा रही जब। कोई दिखता नहीं जो संभाले इसे अब॥ प्रेम आनंद से भिगोये जो सारी जमीं। आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी॥ आओ सब मिल विचारे नया कुछ सवारे। मिटाये जलन अब अपने मन को बुहारें॥ करें प्रेम सबसे और सभी को सवारे। अपना यह जीवन जनहित में वारे॥ तभी मुस्कुराएगा ये शमां और खिल-खिलाएगी जमी। आदमी को स्वयं खल है रहा आदमी॥ बीन जलाए स्वयं जल रहा है आदमी॥ आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी
आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी
read moreTiwari Shiv
ये हसीनाएं है जो वक्त बेवक्त मिल जाती हैं सच कहूं ये बहुत खल जाती है इनकी फितरत में धोखेबाजी होती है ये टाइम पास कर के निकल जाती हैं ये हसीनाएं जो वक्त बेवक्त मिल जाती हैं सच कहूं ये बहुत खल जाती हैं इन्हें एक पल भी नहीं लगता बदलने में ये हर रात नया आशियाना बनाती हैं "शिव तिवारी" ये हसीनाएं........
ये हसीनाएं........
read moreरजनीश "स्वच्छंद"
मनःस्थिति।। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। दुर्ग रक्षित संस्कृति का, भरभरा कर ढह रहा था, उसमे पनपता एक पल्लव हाथ जोड़े कह रहा था। वीर की थी पृष्ठभूमि जो, कब यहां साकार होगी, कब तलक ये आत्मा, निकृष्ट और लाचार होगी। विनय उस निर्बल की भी, पांव तले कुचली गई, थी कहानी चल रही, जीवन मृत्यु की टकरार थी। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। अपने चरम पर दम्भ भी ले खड्ग था चल रहा, मुरझा गया था बीज भी जो गर्भ में था पल रहा। किसके हृदय को भेदता गजपाद का कम्पन रहा, भेदहींन ज्ञान था, कौन विषधर कौन चन्दन रहा। इस अंतहीन विषाद को छद्म सुख में मैं ढो रहा, चींटियों का झुंड था बस, अपनी लम्बी कतार थी। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। बदला हुआ था रक्तवर्ण, जैसे हुआ शिथिल श्वेत, जिसको समेटे जा रहा, बन्द मुट्ठी में जैसे हो रेत। बालमन की संवेदना, उठ आज फिर से जगा रहा, नवसृजित कदमों से कम्पित पग मैं आगे बढ़ा रहा। फिर गगन छूने को पांव पंजे हाथ मैं विस्तारता हूँ, फिर से सुननी है मुझे, जो कल मेरी जयकार थी। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। ©रजनीश "स्वछंद" मनःस्थिति।। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। दुर्ग रक्षित संस्कृति का, भरभरा कर ढह रहा था, उसमे पनपता एक पल्लव हाथ जोड़े कह रहा था। वीर की थी पृष्ठभूमि जो, कब यहां साकार होगी,
मनःस्थिति।। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। दुर्ग रक्षित संस्कृति का, भरभरा कर ढह रहा था, उसमे पनपता एक पल्लव हाथ जोड़े कह रहा था। वीर की थी पृष्ठभूमि जो, कब यहां साकार होगी,
read moreManisha Sharma
अभाव:- अभाव ग्रीष्म(गर्मी) को वृक्षों का, अभाव शीत(ठंड) को कपास का, अभाव मरूस्थल को पानी का, अभाव सागर को किनारे का। अभाव देह को वस्त्रो का, अभाव पैरों को जूतों का। अभाव क्षुधा(भूख) को भोजन का, अभाव तृषा(प्यास) को जल का। अभाव बचपन को शिक्षा का, अभाव शिक्षा को गुरु का, अभाव यौवन को प्रेम का, अभाव नैत्रों को दृश्यों का। अभाव व्याधि(बिमारी) को दवा का, अभाव डिग्री को रोजगार का, अभाव पुस्तक को पाठक का, अभाव कविता को श्रोता का। अभाव बेघर को छाया का, अभाव अनाथ को वात्सल्य का, अभाव बुढ़ापे को संतान का, अभाव किन्नर को समाज का। अभाव भूमि को किसान का, अभाव किसान को पहचान का, अभाव कंजक को कन्या का, अभाव देवी(स्त्री) को रक्षण का। अभाव पर्यावरण को हरियाली का, अभाव नदियों को स्वछत्ता का, अभाव जीवों को संरक्षण का, अभाव योग्य को अवसर का। अभाव हिंदी को मान का, अभाव स्वदेशी को देश का, अभाव राष्ट्र को भक्ति का, अभाव सेना को सम्मान का। ये अभाव कहां समझे धनवान, ये अभाव है भाग्य निर्धन का, अभाव अभाव की समझ का, ये अभाव है मेरे हिंद का। अभाव यहां मान का हो चला, अभाव यहां मर्यादा का, अभाव अब कन्या का हो चला, अभाव बुढ़ापे की लाठी का। अभाव यहां खेतों का हो चला, अभाव गुणवत्त अनाजों का, अभाव अब कूपों का हो चला, अभाव परस्पर पानी का। अभाव यहां वनों का हो चला, अभाव खल-खल करती नदियों का, अभाव अब पक्षियों का हो चला, अभाव जंगल के नहारों(शेरो) का। अभाव यहां फूलों का हो चला, अभाव गुनगुनाते भंवरों का, अभाव अब भगत सिंहों का हो चला, अभाव चन्द्र शेखर आजादों का। अभाव में मानव है आधे, अभाव में पशुधन है सारा, क्यूं दिखता नहीं सक्षम को कुछ भी, क्यूं हो गया पैसा खेल है सारा। जाग मानव, देख मानव, तू ही कर्तम-करता है, पैसा ही पैसा बनाने में, क्यूं व्यर्थ समय नष्ट करता है।
Akib Javed
खुली किताब सी है ज़िन्दगी भी यूं मेरी।। पता नही उन्हें सच बोलना खल रहा होगा।। सुना हैं ख़्वाब को तुम भी तो ढूंढते हो अब।। ऐसे यूं ख़्वाबो से जाना तो खल रहा होगा।। -आकिब जावेद #nojoto #hindi #kavishala #akib
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