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Faniyal
मन में हैं घन तन्हाई के, नैन बहाए झरना ऐ सावन ! दिलो -दिमाग़ में तू इंद्र धनुष सी, याद तेरी बिजली सी अगन !! है निठुर बड़ी वियोग की तड़पन, हुआ नामुमकिन अब जीना जीवन ! आजा अब भी तुझे पुकारे, हो बेकल ये रूह ऐ मदन !! ©Madan Faniyal Singh वियोग का दुःख 😱
वियोग का दुःख 😱
read moreEk villain
इस सृष्टि के उद्भव के विषय में विचार करते हुए कहा गया है कि इसके आदि में केवल एक अकेला भ्रम ही था जो आरोपी तथा करता था तब किसी समय उसके मन में यह इच्छा जागृत हुई कि वह एक से बहुत हो जाए उसकी यह इच्छा ही एक अनुपम योगिता का रूप धारण कर उसके सामने आकर खड़ी हो गई जो बाद में पुरुष रूप धारण किए उस भ्रम की पत्नी बन कर उसे सेरेमनी हुई इसी सृष्टि वीर पुरुष और स्त्री का पहला सहयोग था ©Ek villain #amirkhan संयोग वियोग स्त्री पुरुष का
शैलेन्द्र यादव
विरह के इस मौसम में, तुम्हारी याद में, एक स्मृतियों की खिड़की खोलूंगा, जिसमे आती जाती रहोगी तुम, आती रहोगी तुम हर बार, विरह के इस मौसम में, तुम्हारी यादों में, कविता लिखता रहूंगा, जिसमें जिक्र तुम्हारा होगा, जब-जब यादों में आती रहोगी तुम, विरह के इस मौसम में, तुम्हारे साथ गुजारे लम्हो को, यूँही सजाता रहूँगा, अपने शब्दों में, विरह के इस मौसम में.. विरह के इस मौसम में.. ©शैलेन्द्र यादव #विरह का मौसम #मेरी पत्नी #वियोग
सुसि ग़ाफ़िल
सुनो प्रेमिका ! महसूस होती हो तुम , अब ना तुमको छू सकता हूं , ना आवाज दे सकता हूं ! वियोग......
वियोग......
read moreAshok Bairwa
तू रहता था साथ तो घर में चाँदनी छिटकती थी अब तो यह उजाला बहुत जलाता है मुझे,,, वियोग
वियोग #विचार
read moreAshok Bairwa
कभी दरिया के संगम जैसा था हमारा मिलन। अब कुएं से कुएं जैसा हो गया। ~अशोक बैरवा वियोग
वियोग
read moreDr.Gaurav Verma
मौत से नहीँ डरता हूँ मेरे दोस्त सबको एक बार मरना है डरता हूँ ऐसी जिंदगी से अब तो हर रोज मरना है @वियोग ©Gaurav Verma @वियोग
@वियोग #ज़िन्दगी
read moreकरन सिंह परिहार
पत्र सारे पढ़ लिए संदूक में जो भी रखे थे, पर विरह के ताप में कोई कमी आई नहीं है। सूखते इन आँसुओं से आर्द्रता की बात करने, नेह नद को भेजने की है विनय तुमसे हमारी। हो सके तो भेज देना रात्रि के अंतिम प्रहर तक, जागते इन चक्षुओं को उम्र भर की नींद प्यारी। हो गया है दीप मद्धिम प्रणय की संवेदना का, पर तपित इस देह में कोई नमी आई नहीं है। पत्र----------------------------------------(१) धैर्य रखने में बचीं थीं अश्रु की जो शेष बूँदें, मैं उन्हें तेरे दृगों को सौंपकर अब जा रहा हूँ। स्वर्ण कलशों में भरे उस मद्य को दो घूँट पीकर, शिष्टता की देहरी को लाँघकर अब जा रहा हूँ। मृत्यु को वरने लगीं इस देह की सब तंत्रिकाएं, पर प्रबल मन कामना में संयमी आई नहीं है। पत्र----------------------------------------(२) चढ गये हैं पुष्प अब तो पार्थिव इस सुर्ख तन पर, बस तुम्हारे आगमन को है प्रतीक्षित भीड़ सारी। कल्पनाओं के भँवर में मिलन की अंतिम घड़ी को, अग्नि देकर आचमन को है प्रतीक्षित भीड़ सारी। प्रज्वलित मेरी चिता पर नम हुए हैं नेत्र सबके, पर तुम्हारे वक्ष में कोई गमी आई नहीं है। पत्र------------------------------------------(३) ©करन सिंह परिहार #वियोग